प्रेरणा दयाक सुबिचार

5- ईश्वर को देखना चाहते हो तो माया को हटा दो।

6- इस सत्य को धारण करो कि भगवान पराये हैं, न तुम से दूर हैं और न दुर्लभ ही हैं।

7- जिसनें तुम्हे यहाँ भेजा है, उसने तुम्हारे भोजन का प्रबन्ध पहले से कर रखा हैं।

8- जिसकी साधना करने की तीव्र उत्कण्ठा (इच्छा) होती है, भगवान उसके पास सद्गुरू भेज देते हैं। गुरू के लिए साधकों को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

9- मनुष्य देखने में कोई रूपवान्, कोई कुरूप, कोई साधु, कोई असाधु दिखते हैं, परंतु उन सबके भीतर एक ही ईश्वर विराजते हैं।

10- फल के बड़े होने पर फूल अपने-आप गिर जाता है, इसी प्रकार देवत्व के बढ़ने से नरत्व नहीं रहता।

11- मनुप्य तभी तक धर्म के विषय में तर्क-वितर्क करता है, जब तक उसे धर्म का स्वाद नहीं मिलता। स्वाद मिलने पर वह चुप-चाप साधन करने लगता है।

12- ईश्वर के अनन्त नाम है, अनन्त रूप हैं, अनन्त भाव हैं। उसे किसी नाम से, किसी रूप से और किसी भाव से कोई पुकारे वह सबकी पुकार सुन सकता है, वह सबकी मनः कामना पूरी कर सकता है।

13- पुस्तकें हजार पढ़ो, मुख से हजार श्लोक कहो, पर व्याकुल होकर उसमें डुबकी नहीं लगाने से उसे पा न सकोगे।

14- पहले ईश्वर को प्राप्त करने की चेष्टा करो। गुरू का विश्वास करके कुछ कर्म करो। गुरू न हों तो भगवान् के पास कुल-प्राण से प्रार्थना करो। वह कैसे हैं यह उन्हीं की कृपा से मालूम हो जायगा।

15- सांसारिक पुरूष धन, मान-विष्यादि असार वस्तुओं संगह कर सुख की आशा करते हैं। परन्तु वह सब किसी प्रकार मे सुख नहीं दे सकते।

16- भगवान् जीव को पाप में लिपटा रहने नहीं देता। व दया कर झट उसका उद्धार करते हैं।

17- भगवान् सबको देखते है, किन्तु जब तक वे किसी को अपनी इच्छा से दिखायी नहीं देते तबतक कोई उनको देख या पहचान नहीं सकता।

18- पूर्व दिशा में जितना ही चलोगे पश्चिम-दिशा उतनी ही दूर होती जायगी। इसी प्रकार धर्म पथ पर जितना ही अग्रस होओगे, संसार उतनी ही दूर पीछे छूटता जायगा।

19- कलियुग में प्रेमपूर्ण ईश्वर भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ तथा साथ वस्तु है।

20- प्रेम से हरिनाम गाओ। प्रेम से कीर्तन-रंग में मस्त होकर नाचो। इससे तरोगे। संसार से तर जाओगे।

21- गुरू ही माता, गूरू ही पिता और गुरू ही हमारे कुलदेव है

22- परमात्मा एक है, उसको अनेक लोग अनेक भावों से भजते है।

23- जिस हृदय में ईश्वर का प्रेम प्रवेश कर गया उस हृदय से काम, क्रोध, अहंकार आदि सब भाग जाते हैं। वे फिर नहीं ठहर सकते।

24- सब धर्मों का आदर करो, पर अपने मन को अपनी ही धर्म-निष्ठा से तृप्त करो।

25- साधन-भजन के द्वारा मनुष्य ईश्वर को पाकर फिर अपने धाम को लौट जाता है।

26- ईश्वर हम लोगों के अपने मन में हैं, वह हम लोगो की अपनी माता हैं। उनके पास हम लोगों का जोर करना, मचलना चल सकता है।

27- संसार में रहकर जो साधना कर सकते है, यथार्थ में वे ही वीर पुरूष हैं।

28- संसार में रहकर सब काम करो, पर ख्याल रखो कहीं ईश्वर के लक्ष्य से मन हट न जाय।

29- कुलटा स्त्रियाँ माता-पिता तथा परिवार वालों के साथ रहकर संसार के सभी कार्य करती हैं, परंतु उनका मन सदा अपने यार में लगा रहता है, हे संसारी जीव। तुम भी मन को ईश्वर में लगाकर माता-पिता तथा परिवार का काम करते रहो।

30- ईश्वर के दर्शन की इच्छा रखने वालों को नाम में विश्वास तथा सत्या सत्य का विचार करते रहना चाहिये।

31- संच्चा शिष्य गुरू के किसी बाहरी काम पर लक्ष्य नहीं करता। वह तो केवल गुरू की आज्ञा को ही सिर नवाकर पालन करता है।

32- पतंगा एक बार रोशनी देखने पर फिर अन्धकार में नहीं जाता, चींटियाँ गुड़ में प्राण दे देती हैं, पर वहाँ से लोटती नहीं। इसी प्रकार भक्त जब एक बार प्रभुदर्शन का रसास्वादंन कर लेते हैं, तो उसके लिये प्राण दे देते हैं, पर लौटते नहीं।

33- गुरू लाखों मिलते हैं, पर चेला एक भी नहीं मिलता। उपदेश करने वाले अनेकों मिलते हैं, पर उपदेश पालन करने वाले विरले ही हैं ।

34- ईश्वर का प्रकाश सबके हृदय में समान होने पर भी वह साधुओं के हृदय में अधिक प्रकाशित होता है।

35- समाधि-अवस्था में मन को उतना ही आनन्द मिलता है, जितना जीती मछली को तालाब में छोड़ देने से।

36- ज्ञान पुरूष है, भक्ति स्त्री है। पुरूष मायानारी से तभी छूट सकता है जब वह परम वैरागी हो। किंतु भक्ति से तो माया सहज ही छूटी हुई है।

37- काजल की कोठरी में कितना भी बचकर रहो, कुछ न -कुछ कसौंस लगेगी ही। इसी प्रकार युवक-युवती परस्पर बहुत सावधानी के साथ रहें तो भी कुछ-न-कुछ काम जागेगा ही।

38- जिस प्रकार दर्पण स्वच्छ होने पर उस में मुँह दिखलायी देने लगता है, उसी प्रकार हृदय के स्वच्छ होते ही उसमें भगवन का रूप दिखायी देने लगता है।

39- ईश्वर को अपना समझकर किसी एक भाव से उसकी सेवा-पूजा करने का नाम भक्तियोग है।

40- कलियुग में और योगों की अपेक्षा भक्ति योग से सहज ही ईश्वर की प्राप्ति होती है।

41- ध्यान करना चाहते हो तो तीन जगह हर सकते हो- मन में, घर के कोने में और वन में।

42- दुष्ट मनुष्य में भी ईश्वर का निवास है, परंतु उसका संग करना उचित नहीं।

43- ऐसे मनुष्यो से, जो उपासना से ठट्ठा करते है, धर्म तथा धार्मिकों की निन्दा करते है, एकदम दूर रहना चाहिये।

44- दूध में मक्खन रहता है, पर मथने से ही निकलता है। वैसे ही जो ईश्वर को जानना चाहे वह उसका साधन-भजन करे।

45- एक ज्ञान ज्ञान, बहुत ज्ञान अज्ञान।

46- ईश्वर साकार-निराकार और क्या-क्या है, यह हमलोग नहीं जानते। तुम्हें जो अच्छा लगे उसी में विश्वास कर उसे पुकारो, तुम उसी के द्वारा उसें पाओगे।

47- मिसरी की डली चाहे जिस ओर से, चाहे जिस ढंग से तोड़कर खाओ मीठी ही लगेगी, उसी प्रकार मन सफेद कपडे के समान है, इसे जिस रंग में डुबाओगे वहीं रंग चढ़ जायगा।

48- मन को स्वतंत्र छोड़ देने पर वह नाना प्रकार के संकल्प -विकल्प करने लगता है, परंतु विचार रूपी अंकुश से मारने पर वह स्थिर हो जाता है।

49- हरिनाम सुनते ही जिसकी आँखों से सच्चे प्रमाश्रु वह निकलते हैं वही नाम-प्रेमी है।

50- डुबकी लगाते ही जाओ, रत्न अवश्य मिलेगा। धीरज रखकर साधना करते रहो, यथासमय अवश्य ही तुम्हारे ऊपर ईश्वर की कृपा होगी।

51- साधु-संग को धर्म का सर्व प्रधान अङग समझना चाहिये।

52- मरने के समय मनमें जैसा भाव होता हैं, दूसरे जन्म में वैसी ही गति होती है, इसीलिये जीवन भर भगवान के स्मरण की आवश्यकता है, जिससे मुत्यु के समय केवल भगवान् ही याद आवें।

53- ईश्वर अपने आने के पूर्व साधक के हृदय में प्रेम, भक्ति, विश्वास तथा व्याकुलता पहले ही भर देते हैं।

54- हृदय स्थिर होने से ही ईश्वर का दर्शन होता है, हृदय – सरोवर में जब तक कामना की हवा बहती रहेगी, तब तक ईश्वर का दर्शन असम्भव है।

55- केवल ईश्वर-ज्ञान ही ज्ञान है और सब अज्ञान है।

56- भगवान् भक्ति के वश हैं, वे अपनी ओर ममता और प्रेम चाहते हैं।

57- जिसके मन में ईश्वर का प्रेम उत्पन्न हो गया, उसे संसार का कोई सुख अच्छा नहीं लगता।

58- जो प्रभु के प्रेम में बाबला हो गया है, जिसने अपना सब कुछ उनके चरणों में अर्पण कर दिया है, उसका सारा भार प्रभु अपने ऊपर ले लेते है।

59- संसार में आकर भगवान के विषय में तर्क, युक्ति, विचार आदि करने से कुछ फल नहीं। जो प्रभु को प्राप्त कर आनन्दानुभव कर सकता है, वही धन्य है।

60- सभी मनुष्य जन्म-जन्मान्तर में कभी न कभी भगवान् को देखेगे ही।

“अधूरा नहीं, पूरा पड़े”

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